नागनी माता जी का इतिहास
हिमाचल प्रदेश देवी देवताओं की भूमि है। नाग देवता अपने आप को सदा जंगलों में ही छिपाये रखते है। क्योकि उन्हे शांत वातावरण में ही रहना प्रिय है। हिमाचल प्रदेश पहाडों और वनों की भूमि है। यही कारण हैं कि सभी देवी देवता वनों और पहाडों में ही अपना स्थान ग्रहण किए हुए हैं। एक ओर मणी महेश , अमरनाथ कैलाश पर्वत में भगवान शिव रह रहे हैं तो दूसरी ओर माता वैष्णों कटडा के समीप जम्मू और कश्मीर में ऊॅचे ऊचे पहाडों पर विराजमान हैं। प्राचीन समय में साधु संत तपस्या करने वनो और पहाडों में जाया करते थें । इसी बात को ध्यान रखते हुए आप सभी सज्जनों का ध्यान एक छोटे से वन की ओर आर्कषित करते हैं। जहां नागनी माता का सुन्दर मन्दिर बना हैं। इस मन्दिर को सभी भक्तन छोटी नागनी कहते है। बडी नागनी भडवार तहसील नूरपुर में है। माता नागनी की प्राचीन कहानी इस प्रकार से है।
लगभग 90 साल पहले कि बात है कि एक बाबा गोरखा जी जो नेपाल के रहने वाले थे । जब रेलवे लाईन के चक्की पुल का निर्माण किया गया तो बाबा गोरखा वहा पर मेट का काम करते थे। यह पुल कागडा घाटी को जाने वाली रेलवे लाईन कि लिए तैयार किया जा रहा था। उस गोरखा बाबा में लोंगों को एक नई किरण दिखाई दी क्यांेकि उनके द्वारा किया गया हर काम तुरन्त पूरा हो जाता था। कुछ लोंगों का कहना था कि उन्होनें देवी देवताओं की सिद्धी की थी। गोरखा बाबा जी ने दरिया के किनारे खुले स्थान पर अपने लिए उठने बैठने का स्थान बना लिया और वहां पर अपनी धूनी जमा ली। कुछ दिनों के बाद बाबा जी ने घास फूस इक्टठी कर एक छोटी सी झोपडी भी तैयार कर ली । पीने के पानी के लिए अपने हाथों से एक बाबडी बना ली । बाबडी का स्थान आज भी देखने को मिलता है। बाबडी बनने से उस के चारों ओर की भूमि उपजाऊ हो गई। कंडवाल के लोगों ने उस भूमि का उपजाऊपन देखकर उस पर हल चलाना चाहा तथा बाबा जी को वहाॅ से ऊठ जाने को कहा परन्तू बाबा जी वहाॅ से नही गये। कुछ लोगो ने आवेश में आकर उन की झोपडी ही जला डाली। बाबा जी फिर भी वहाॅ से नही हिले। कई दिनो तक अन्न भी ग्रहण नही किया तथा धूनी रमाई रखी। संत महात्मा भगवान का रुप होते है। बाबा जी के हालात को देखकर कंडवाल के पास वरन्डा गाॅव के कुछ बुजुर्ग गोरखा बाबा जी से क्षमा मागंने चले गए। जिसमें बरण्डा निवासी लम्बरदार तारा सिह प्रमुख थे। लम्बरदार जी के साथ श्री मुन्शी राम सम्बययाल जी भी गए। और उन्होने यहाॅ सुगंडनाला में एक प्राचीन शिव मन्दिर के बारे में जो सन 1887 में श्री जालम सिंह सम्बयाल सिंह जी ने बनवाया था जो आज भी यहाॅ मौजूद है,के बारे में बताया कि इस में आप के लिए पूजा की व्यवस्था भी हो सकती है और कुटिया भी बना देगें । इस पर बाबा जी मान गये और उन्होने दो पत्थर वहाॅ से उठा लिये तथा एक छोटे से वन में स्थापित कर दिये। वन को उन दिनों ग्वाल भट्ठी कहते थे जब बाबा गोरखनाथ जहाॅ रहने लगे जो उस स्थान का नाम बाबे की कुटिया पड गया, कहते है एक दिन बाबा गोरखा जी समाधि लगा कर बैठे थे कि अचानक उनकी लम्बी लम्बी जटाओं में से एक नागनी माता जी प्रकट हो गई तथा जटाओ में से रेंगती हुई बाबा जी की गोद में बैठ गई तथा देखते ही देखते दरवार में बाबा जी द्वारा रखी पिंडी में जाकर छुप गई। तब से बाबा जी की कुटिया को नागनी माता के मन्दिर के नाम से पुकारा जाने लगा आज भी बाबा जी द्वारा रखी गई पिण्डी मौजूद है। इस मन्दिर में कोई भी प्रतिमा नहीं है
बाबा जी के बारें में यह भी कहा जाता है कि बाबा जी के पास अन्नपूर्णा माता की सिद्धी थी। अपने समय में बाबा जी एक छोटी सी पतीली में खिचडी पकाते थे तथा उस को किसी कपडे से ढक देते थे माता नागनी को भोग लगाने के बाद सैकडों के हिसाब से लोग भोजन खा जाते थे । परन्तू वह चमत्कारी पतीली कभी खाली नही होती थी । कहते है कि भोग लगाने के समय बाबा जी किसी को अन्दर आने नही देते थे। एक बार बाबा जी के पास कोई गोरखा व्यक्ति आया और अपने बेटे को बाबा जी के चरणों में रख कर चला गया। बाबा जी ने उसे पाल पोस कर बडा किया । बडा होकर वह बाबा जी की सेवा में जुट गया । जब वह लडका बारह वर्ष का था तो बाबा जी प्रभू के चरणों में समा गए। वही पर बाबा जी की समाधि बना दी गई। दर्शन करने बाले भक्त बाबा जी की समाधि पर फूल मालायें चढाते है । बाबा जी के समा जाने पर वह लडका उदास रहने लगा इसलिए वह इस स्थान को छोडकर साधू मंडली में शामिल हो गया।उसके बाद वह कभी मुड कर वापिस नही आया । उस के चले जाने के उपरान्त बारण्डा निवासियों ने नागनी मन्दिर की एक कमेटी गठित कर दी तथा कमेटी के सभी सदस्य दिन रात निस्वार्थ भाव से माता नागनी की सेवा में जुट गए।
इस स्थान की मिट्टी जिसे शक्कर कहते है, साॅप द्वारा डसे हुए स्थान पर लगाने से विष जाता रहता है और आराम आ जाता है। आज भी इस मन्दिर में साॅप के काटे लोग आते रहते है पुजारी जी शक्कर लगाते है और वह निरोगी हो जाते है। साॅप के काटे व्यक्ति को माता के दरवार में पाॅच से सात दिनों तक रहना पडता है। इस मन्दिर में सभी धर्मों के लोग पूर्ण श्रद्धा से आते है। श्रावण मास में इस मन्दिर में मेलो का आयोजन होता है जिस में हिमाचल प्रदेश के साथ-साथ जम्मू और पंजाब प्रांत के लोग भी बढ चढ कर भाग लेते है।